सामान्य परिचय

आर्ष काव्य में आदर्श स्त्री रत्न अहल्या

अहल्या का सामान्य परिचय

भारतीय आर्ष काव्य में अनेक अनुकरणीय स्त्री रत्न है।आर्ष काव्य में वर्णित नारी रत्नों का उदात्त चरित्र सर्वदा आदर्श और अनुकरणीय होने के साथ विलक्षण भी हैं। आर्ष काव्य में एक नारी चरित्र अहल्या है जो बड़ा ही विलक्षण है।जो विशिष्ट चेतना से युक्त होने के कारण प्रातः स्मरणीय माना जाता है।

अहल्या द्रौपदी कुन्ती तारा मन्दोदरी तथा।
पञ्चकन्याः स्मरेनित्यम् महापातकनाशम्।।

प्रातः स्मरणीय पंच कन्याओं में अहल्या का नाम कनिष्ठिका पर परिगणित होता है। पंच कन्या अर्थात अहल्या, द्रौपदी, तारा,कुन्ती, मन्दोदरी इन पंच कन्याओं का प्रतिदिन स्मरण से क्षण मात्र में ही सभी महापापों का शमन हो जाता है। वर्णित इन पंच कन्याओं में अहल्या, तारा और मन्दोदरी रामायण काल से सम्बद्ध है जबकि कुन्ती और द्रौपदी महाभारत से जुड़ा नारी रत्न हैं। विवाहिता ये पाँचों ही नारीयों अपनी-अपनी भूमिका में अपने-अपने पतियों के प्रति पूर्ण समर्पित हैं। अहल्या अपने पति गौतम के साथ उनके आश्रम में, मन्दोदरी, तारा, कुन्ती, द्रौपदी राजकुल में दायित्व का निर्वाह करती हैं। यह पाँचों विवाहित होते हुए भी कन्या कहा इतना ही नही इनका स्मरण महापापों का नाश भी करता है। यह पाँचों महिलायें विवाहित होते हुए भी कन्या कहलाती है। कन्या शब्द की व्युत्पत्ति के बारें में विचार करते हैं तो “कन्” दीप्तौ धातु से यक् (औणादिक) प्रत्यय तथा “कन्यायाः कनीन्” सूत्र टाप् प्रत्यय करने पर कन्या शब्द निष्पन्न होता है। जिसका अर्थ है “कुमारी ” “कुत्सितो मारो यस्यां सा कुमारी,कुत्सितो यस्मिन्नित कुमारः”। अर्थात जिसमें काम कुत्सित हो (संयम के कारण दबा हो) पंच कन्याओं में अहल्या और द्रौपदी अयोनिजा हैं। अयोनिजा यानि जिसने गर्भ के बाहर जीवन धारण किया। जिसका प्रमुख उदाहरण श्री गणेश है जिनका प्रादुर्भव माता पर्वती ने अपने शरीर पर लगे चन्दन को एकत्रित कर गणेश को ढाला।उसी तरह शिव के दुसरे पुत्र कार्तिकेय का जन्म भी शरीर के बाहर ही हुआ। इक्ष्वाकु वंश के राजा मांधता का जन्म अयोनिज है।
अहल्या का वर्णन हमें वैदिक साहित्य से लेकर लौकिक साहित्य तक में मिलता है। पुराणों व महाभारत में अहल्या उत्पत्ति की कथा इस प्रकार से प्राप्त होती है। “सर्वप्रथम ब्रह्मा के मन में सभी स्थानों के सौन्दर्य को एकत्रित करके एक नारी बनाने की इच्छा हुई। उन्होंने समस्त जगत का सौन्दर्य एकत्रित करके एक अभूतपूर्व नारी बनाई। उसके नख से सिख तक सौन्दर्य ही सौन्दर्य था।उसका नाम रखा “अहल्या ” “हल” कहते हैं पाप को तथा हल का भाव “हल्य” और जिसमें पाप नही हो वह “अहल्या ” है। अहल्या भूमण्डल की प्रथम सर्वांसुन्दर नारी थी।ब्रह्मा ने अहल्या का सर्जन किया इस कारण अहल्या को ब्रह्मा की मानस पुत्री कहा जाता है। कृतिवास रामायण के अनुसार ब्रह्मा ने बहुत सी रूप सम्पन्न एवं गुणवती कन्याओं का सृजन किया। उन सभी कन्याओं में से सौन्दर्य लेकर एक सर्व गुण सम्पन्न तथा अत्यंत सुन्दर कन्या की सृष्टि की उसका नाम अहल्या रखा। “हल” का अर्थ विरूपता तथा “हल्य” का अर्थ विरूपता के कारण प्राप्त निन्धत्व। इस प्रकार अनिंद्य सौन्दर्य से परिपूर्ण होने के कारण ब्रह्मा ने इस कन्या का नाम “अहल्या ” रखा।अहल्या शब्द की व्युत्पत्ति है ” जिस पर हल नहीं चल सके”। अहल्या शब्द का एक अर्थ यह भी है कि वह जिसका जन्म हल द्वारा जोती गई भूमि से नही हुआ हो अर्थात अर्योनजा हैं।
वाल्मीकीय रामायण के उत्तरकाण्ड में अहल्या के उत्पत्ति की कथा मिलती है। आदि कवि वाल्मीकि ने अहल्या के अनिंद्य सौन्दर्य का वर्णन करते हुए लिखा है कि इस कन्या का अभिधान स्वयं ब्रह्मा ने किया।

ततो मया रूपगुणैरहल्या स्त्री विनिर्मीता।
हलं नामेह वैरूप्यं हल्यं तत्प्रभवं भवेत् ।।
यस्या न विद्यते हल्ये तेनाहल्येति विश्रुता।
अहल्येत्येव च तया तस्या नाम प्रकोर्तितम् ।।
(वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड 22-23)

जगत पिता ब्रह्मा ने अपने द्वारा पूर्व में सृजित प्रजाओं के रूप रंगादि में वैशिष्ट्य लाने के लिए विलक्षण क्रान्ति से तथा प्रत्येक अंग में विशिष्ट सौन्दर्य से युक्त स्त्री रत्न की सृष्टि की। ब्रह्मा ने दुसरे प्राणियों से सर्वश्रेष्ठ अंग लेकर एक ऐसी स्त्री का निर्माण किया जिसमें “हल” कुरूपता का सर्वथा अभाव था और उसका नाम “अहल्या ” रखा। आदि कवि वाल्मीकि ने अहल्या के सौन्दर्य और लावण्य का वर्णन करते हुए लिखा है कि:-

प्रयत्नान्निर्मितां धात्रा दिव्यां मायाययीमिव।
धूमेनाभिपरीताड्गीं दीप्तामग्निशिखामिव ।।
षुतुषारावृतां साभ्रां पूर्णचन्द्रप्रभामिव।
मध्येऽभसो दुराधर्षो दीप्तां सूर्यप्रभामिव ।।
(वाल्मीकि रामायण 1-49,14-15)

अहल्या का स्वरूप अत्यंत ही दिव्य था। उसके प्रत्येक अवयवों से इतना तेज झलकता था जैसे धुएँ से घिरी हुई प्रज्ज्वलित अग्निशिखा हो। वह ऐसे दिखती थी जैसे ओले और बादलों से ढँकी हुई पुर्ण चन्द्रमा की क्रांति हो। उसका सौन्दर्य जल के भीतर उद्भासित होने वाली सूर्य की दुर्धर्ष प्रभा के समान दृष्टिगोचर होता था। अहल्या को “सुमध्यमा” कहा गया है जिसका अर्थ सुन्दर कटिप्रदेश वाली कन्या। अद्भुत लावण्य से सम्पन्न होने के कारण उनका नाम अहल्या सार्थक होता है। अहल्या का सौन्दर्य अनिंद्य था। इसे अगन्धा भी कहा जाता है। अहल्या ने सभी कामनाओं पर विजय प्राप्त कर ली इसके कारण इसका सौन्दर्य अद्वितीय था। अहल्या शुद्ध आत्मा और पावनता का प्रतीक हैं। उनका ह्रदय सरल शुद्ध और निष्पाप था। शुद्ध आत्मा ही सदा चिरन्तन सौन्दर्य तथा दिव्यत्व से परिपूर्ण होती है। निर्मलचित और विशुद्ध आत्मा से युक्त व्यक्ति ही ईश्वरत्व को प्राप्त कर सकता है। अहल्या ने सांसारिक जीवन की प्रतिबद्धताओं के बीच कर्तव्य का पालन करते हुए अपनी चेतना को दैहिकता से परे रखा। अहल्या आत्मिक चेतना को चरमोत्कर्ष तक ले जाकर सर्वदा के लिए पुज्य व स्मरणीय बन गयी। अहल्या का परिचय “शब्दकल्पद्रुम” में हरिवंश पुराण को उद्घृत इस प्रकार से दिया गया है।

दिवोदासश्च राजर्षिरहल्या च यशश्विनी।
शरद्वतश्च दायादमहल्या समसूयत ।।

हरिवंश पुराण (1-32,28-32) श्लोकों के अनुसार मुद्गल, मौद्गिल,इन्द्रेश,वृहदृश्व, में क्रमशः पिता पुत्र का सम्बन्ध था। वृहदृश्व तथा मेनका की सन्तान बताई गई है अहल्या को।अहल्या को विष्णु पुराण (4,19,61) वृध्दश्व,मत्स्यपुराण (50-61) में विध्याश्व तथा भागवत पुराण (9,21,34) में मुद्गल की पुत्री माना हैं। पउमचरियं (पर्व) के अनुसार अहल्या ज्वलनसिंह व वेगवती की पुत्री माना गया है अहल्या को। महरी नृत्य परम्परा के अनुसार ब्रह्मा ने जल से अहल्या को सबसे सुन्दर नारी के रूप में उर्वशी के अंहकार को समाप्त करने के लिए बनाया। आदिवासी भील संस्कृति में अहल्या की सृष्टि राख से करने की कथा मिलती है।
अहल्या से गौतम के विवाह प्रसंग विस्तृत रूप से ब्रह्मपुराण के अहल्या-संगम तीर्थ माहात्म्य प्रसंग में आया है,जो इस प्रकार है-” पूर्व काल की बात है कि ब्रह्मा ने अत्यंत कौतूहल वश कुछ सुन्दर कन्याओं की सृष्टि की। उनमें से एक सबसे श्रेष्ठ और उत्तम लक्षणों से युक्त थी। उसके सब अंग बड़ें मनोहर तथा रूप और गुणों से सम्पन्न थे। उस समय ब्रह्मा के मन यह विचार हुआ कि कौन पुरुष इस कन्या का पालन-पोषण करने में समर्थ है? बहुत सोच विचार करने के पश्चात महर्षि गौतम ही समस्त गुणों में श्रेष्ठ तपस्वी, बुद्धिमान, समस्त शुभलक्षणों से सुशोभित और वेद-वैदागों के ज्ञाता प्रतीत हुए।अतः ब्रह्मा ने उन्हीं को वह कन्या दे दी और वह कन्या दे दी और कहा “मुनिश्रेष्ठ”! जब तक यह युवती न हो जाय, तब तक तुम्ही इसका पालन-पोषण करो। युवा हो जाने पर पुनः इस साध्वी कन्या को मेरे पास ले आना।” यह कह कर ब्रह्मा ने गौतम को वह कन्या समर्पित कर दी। यह उल्लेख वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड में भी है।
महर्षि गौतम की अभी युवा अवस्था थी, किन्तु तपोबल से निष्पाप हो चूके थे। उन्होंने विधिपूर्वक उस कन्या का पालन-पोषण किया और युवती होने पर वस्त्रोभूषणों से सुसज्जित कर ब्रह्मा के पास ले गये। उस समय उनके मन में कोई विकार नहीं था। अहल्या को देखकर सभी देवताओं ने बारी-बारी से ब्रह्मा से उस कन्या की मांग की। पर ब्रह्मा ने महर्षि गौतम की महत्ता, गम्भीरता,धैर्य ज्ञान, तपस्या का विचार करके कन्या गौतम को दे दी। गौतम, अहल्या, इन्द्र की कथा थोड़े बहुत अन्तर के साथ वाल्मिकीय रामायण, असमिया रामायण, रंगनाथ रामायण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, कृतिवास रामायण, तत्वसंग्रह रामायण, कम्ब रामायण, बलरामदास रामायण, हिन्दी विश्राम सागर,महाभारत, लिंगपुराण, ब्रह्मपुराण, स्कन्ध पुराण, कथासरित्सागर, अध्यात्म रामायण, आनन्द रामायण, तोरवे रामायण, रघुवंश, नृसिंह रामायण, महानाटक,वर्हिपुराण,गणेश पुराण, राघवोल्लास काव्य और रामचरितमानस में मिलती है। अहल्या के ऊपर इन्द्र को लेकर जो लांछन लगाया गया है वह नितान्त असत्य है। वैदिक साहित्य में अहल्या का नाम प्रतीक अर्थ में आया है। कुमारिल भट्ट ने अपने तन्त्रवार्तिक ग्रंथ में अहल्या कथा का अर्थ सूर्य तथा रात्रि परक किया है। गौतम की व्युत्पत्ति करते हुए लिखा है:-

उत्तमा गावो रश्मय: यस्य सः गौतम।
अर्थात चन्द्रमा अहलीयते यस्यां सा अहल्या।
अर्थात, रात्रि यः एव तपति स एवं इन्द्र।

अर्थात सूर्य ही इन्द्र है। निरुक्तकार यास्क का कथन है कि सूर्य रात्रि को जीर्ण करता है।

सुषुन्नाः सूर्यरश्मि चन्द्रमा गन्धर्व इत्यपि निगर्मो भवति सोऽपि ।
गोरुच्यते सर्वेऽपि रश्मयो गाव उच्यन्ते।।
(निरुक्त 2/2/2)

अर्थात सूर्य की सुषुम्ना नामक रश्मि चन्द्रमा को रूप सम्पन्न बनाती है। यह वैदिक सिद्धांत हैं। इसलिए इस रश्मि को गौ कहते हैं अथवा सभी रश्मियों का नाम गौ हैं।

रात्रिरादित्यस्यादित्योदयेऽन्तर्धीय ते।।
सूर्यरश्मिच्श्न्द्रमा गंधर्व इत्यपि निगर्मो भवति।
सोऽपिगौरुच्यते ।।
जार आ भगम् जार एव भगम् ।
आदित्योऽत्र जार उच्यते, रात्रेर्जरयिता।।

अर्थात सूर्य ही इन्द्र है,रात्रि ही अहल्या है तथा चन्द्रमा ही गौतम है। रात्रि और चन्द्रमा का स्त्री पुरुष के समान रूपक है। जैसे स्त्री-पुरुष साथ रहते हैं वैसे ही चन्द्रमा और रात्रि साथ-साथ रहते हैं। चन्द्रमा अत्यंत तीव्र गति से चलता है। इसलिए वह गौतम है। रात्रि का दिन में लय हो जाता है। इसलिए वह अहल्या है। सूर्य रात्रि को जीर्ण कर देता इसलिए वह जार है।

अहनि स्वपतौ सूर्यो, अहल्या लीयते ऊषा ।
कथमपि न जारत्वं, स्वपतौ तरमणाल्लयः ।।
इन्दः सूर्यः अहन्, चैन, पर्यायवाचिनो यतः ।
तसमान्नास्त्येव जारत्वमहल्या चेन्द्रयोर्मिथः ।।

शतपथ ब्राह्मण के अनुसार:-
(1) इन्द्रागच्छेति गौरावस्कन्दिन्नहल्यायै जारेती।
(2) तद्यान्यैवास्या चारणानि तैरेवैनमेतत् प्रमुमोदयिद्यति ।।
(3) (2) रेतः सोमः।।
(4) (3) एष एवेन्द्रो य एष तपति।
गौतम, अहल्या, इन्द्र की कथा प्रतीकात्मक कथा है। जो कि इन नामों से भी प्रमाणित होती है। अहल्या शब्द की व्युत्पत्ति है “जिस पर हल नहीं चल सके ” अर्थात बंजर भूमि। मूलतः जब ब्रह्मा ने पृथ्वी की सृष्टि उस समय इस पर हल नही चलता था। सूर्य के प्रकाश से पृथ्वी शिला की तरह जड़ थी। यानि अहल्या थी। वर्षा होने पर और हल चलने पर, हल चलाने वाले “गौ” तमों ने (बैलों ने) उसे पाला पौसा। वह सुन्दर हो गई किन्तु ताप अधिक होने व सूर्य रशियों के अधिक्य भूमि बंजर हो गई। वैदिक कालीन प्रतीकों में विष्णु,इन्द्र और वरूण सूर्य के प्रतीक हैं। विष्णु का “गौलोक” गौऔं का (रश्मियों का) लोक है। इसी आधार पर रश्मियों को गौ(गाय) का रूप दिया गया,रश्मि को “गौ” का रूप दिया गया है। प्राचीन काल में हलवाही गौऔं (बैलों) के बल से ही कृषि की जाती थी। उन्हें “गौतम “कहकर खेत जोतने का संकेत प्रतीकात्मक रूप से किया गया है। हल के द्वारा पृथ्वी युवती होती है यह तथ्य गौतम को अहल्या के संभालने की कथा में प्रतीकात्मक रूप से सूचित किया गया है। इन्द्र के अर्थात सूर्य के सीधे सम्पर्क से वह शुष्क हो सकती है, बंजर हो सकती है, शिला जैसी बन सकती है। उसे पुनः उपजाऊ और सुन्दर बनाने के लिए सुयोग्य, शक्तिशाली रक्षक की आवश्यकता होती है। राम कथा में प्रतीकात्मक रूपक को मानवीकरण के द्वारा अहल्या उपाख्यान के रूप में वर्णित किया गया है।
वाल्मीकि रामायण, ब्रह्मपुराण में वर्णित कथा में अहल्या को ब्रह्मा की मानस पुत्री कहा गया है। अहल्या को यह वर प्रदान किया गया है था कि वह हमेशा षोड़षी (सोलह वर्ष) ही रहेगीं। सर्वथा दोष रहित, अनिंद्यय सुन्दरी, जिसके रूप में कुरूपता का अभाव था।ब्रह्मा ने सुरक्षा व लालन-पालन के लिए धरोहर के रूप में अहल्या को महर्षि गौतम को सौप दिया। अहल्या के चरित्र को लेकर महाभारत काल तक कोई भी क्षेपक कथा नही रचि गई। बुद्धकाल से सनातन साहित्य को क्षेपक कथाओं से भर दिया गया। जिसमें भारतीय महान चरित्रों को दुषित किया गया। जिसमें गौतम, अहल्या और इन्द्र की कथा भी है। गौतम, अहल्या इन्द्र की कथा को कालान्तर में अपने-अपने ढ़ग से प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया। यह कथा रामकथा लिखने वाले लेखकों न नही तो इस पुरी तरह से स्वीकार किया न ही इसे हटा सकने का सहास किया। यह कथा धार्मिक-पौराणिक सहित विभिन्न कहानियों व कथाकार के हाथों की कठपुतली बन रही। तुलसीदास जी के रामचरितमानस को भी देखे तो उन्होंने भी अहल्या इन्द्र कथा के प्रकरण को बालकाण्ड़ में मात्र दो चौपाई और चार छन्दों में पुर्ण कर दिया। जिसमें होने न होने से रामचरितमानस मानस के ग्रंथ पर कोई प्रभाव परिलक्षित नहीं होता है। इन पक्तियों के साथ मैं इस आलेख की विराम देता हूं।

देवी अहल्या, दौपदि,तारा,कुन्ती, मन्दोदरी धन्या ।
प्रभुकी परम अनुग्रहभाजन पावन ये पाचों कन्या ।।

अहल्याचरितम्

वृत्त- शिखरिणी
डॉ विपिन कुमार द्विवेदी
फतेहपुर, उत्तर प्रदेश
अहल्या श्रेष्ठासौ विमलचरिता लोकविदिता,
प्रभाते सुस्मर्या कलिमलहरा ब्रह्मतनया।
परा विश्वे रम्या विधिवरकृतिर्गौतमभृता,
नमस्या सश्रद्धं सुपदकमला भोगविगता।।

भवे कन्या: पंच प्रथितचरिता भारतभुवि,
समाजस्य प्राणा: प्रकृतिमधुरा: पावकविभा:।
प्रसिद्धा तास्वेका गतमलिनभावा सुखकरी,
सुवन्द्याहल्यासौ स्मरत हितहेतो: प्रतिदिनम्।।

वसन्ती संसारे मुदितहृदया धारितवती,
स्वकर्तव्यं स्त्रीणां श्रुतिकुलसमेता मधुमयी।
अहल्या नारीणां मुकुटमणिदीप्तिर्गुणयुता,
भजन्तां तां नित्यं सकलमनुजा आत्मयतये।।

महाभूतेष्वेकं कथितममलं तत्त्वमनल:,
प्रसिद्धाहल्यासौ गुणगणयुता धर्मनिरता।
सुषुम्नानाडी वै व्रतनियमतप्ता त्वभिहिता,
दयामूर्तिर्माता कुरु निजकृपां मानवकुले।।

अनिन्द्यं ते वृत्तं नरनिवहगेयं शुभकरम्,
अहिल्ये हे मात: नहि किमपि जाने तव तप:।
पुराणैस्ते गीतं सुधवलयशो दिक्षु लसितम्,
नुमस्त्वां नित्यं हे भवविकटबन्धं हर मम।।